रोशनी की तलाश में

वीरेन्द्र खागटा
आप उसे दामिनी कहें, अमानत, निर्भया, वेदना या ज्योति, उसकी अनुपस्थिति हमारे समय की क्रूरतम घटना है। 16 दिसंबर की उस काली रात उसके साथ जो कुछ हुआ, वह कितना भयावह और बर्बर था, इसका अंदाजा उसका इलाज करने वाले डॉक्टरों के बयानों और उसकी मेडिकल रिपोर्ट के ब्योरों से होता है। लोग अब भी सदमे में हैं, और सरकार से दो टूक इंसाफ चाहते हैं। इसलिए इस घटना को सिर्फ इंडिया गेट और जंतर मंतर में जल रही मोमबत्तियों की रोशनी तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए।

यह विडंबना ही है कि ऐसे समय जब नेतृत्वहीन लोग सड़कों पर उतरे, तो सरकार में बैठे लोगों ने हतप्रभ कर देने वाली चुप्पी साध रखी थी! जबकि ऐसा पहली बार हुआ कि किसी राजनीतिक मकसद के बगैर निहत्थे लोग सत्ता के दरवाजे तक पहुंचकर न्याय मांग रहे थे।

यह गोलबंदी ऐसा संकेत है, जिसे समझने में सरकार में बैठे लोगों ने और कुछ हद राजनीतिक बिरादरी ने भूल की है। यह नए भारत की वह तस्वीर है, जो दिखाती है कि गैर राजनीतिक जनता सत्ता के साथ ही, निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी अपना हिस्सा मांग रही है। इसे सामान्य तौर पर राजनीतिक वर्ग और विशेषरूप से सत्ता के प्रति बढ़ते असंतोष के रूप में देखा जा सकता है।

और अब यदि बलात्कार और यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों में या न्याय की प्रक्रिया में बदलाव के बारे में विचार किया जा रहा है, तो वह इसी दबाव का नतीजा है। असल में राजनीतिक वर्ग का चेहरा अब पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। यह सबने देखा है कि अपने राजनीतिक हितों के लिए धुर विपक्षी लोग कैसे एक खेमे में आ जाते हैं और कैसे सरकार जब चाहती है विधयेक को पारित करवा सकती है।

खुदरा में एफडीआई से लेकर प्रमोशन में आरक्षण और भूमि सुधार विधेयक तक के घटनाक्रम इसकी तसदीक करते हैं, जिन्हें यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। असल में विधायिका में महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण देने से संबंधित विधेयक आज तक पारित नहीं हो सका है, तो इसे गहरी राजनीति के तौर पर ही समझने की जरूरत है। और अब जब हम नए वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, क्या यही समय नहीं है, जब इस विधेयक को पारित किया जाए और महिलाओं को सत्ता में हिस्सेदारी दी जाए। यह उस 23 वर्षीय युवती को सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है, जिसके सपनों को पंख लगने से पहले ही ध्वस्त कर दिया गया।

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